पिंपरी घाट पर शिवा, राशिद, अमोल, शाम, पारस का रेत साम्राज्य! प्रशासन मौन क्यों?

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पिंपरी घाट पर शिवा, राशिद, अमोल, शाम, पारस का रेत साम्राज्य! प्रशासन मौन क्यों?

घाट PWD का, कब्जा रेत तस्करों का.?

चंद्रपुर—महाराष्ट्र 
28 | अप्रैल| 2025 
रिपोर्ट — अनुप यादव ग्लोबल महाराष्ट्र न्यूज नेटवर्क 
 
पुरी खबर :— पिंपरी घाट पर रेत माफिया बेलगाम हो चुके हैं। रात के अंधेरे में पोकलैंड मशीनों की गरजती आवाजें प्रशासन की लापरवाही की गवाही दे रही हैं।
शिवा, राशिद, अमोल, शाम और पारस जैसे कुछ स्थानीय युवक, खुलेआम PWD-1 के आरक्षित घाट पर भारी पैमाने पर अवैध रेत उत्खनन कर रहे हैं।
सबसे हैरानी की बात यह है कि जिस घाट को सार्वजनिक बांधकाम विभाग ने आरक्षित घोषित किया है, वहां न तो सुरक्षा के कोई इंतजाम हैं और न ही खनन की कोई तय सीमा तय की गई है। न सीसीटीवी, न कोई निगरानी। इसका सीधा फायदा उठाते हुए हजारों घनफुट रेत हर रात बाजार में ऊंचे दामों पर खुलेआम बेचा जा रहा है।
जिम्मेदार अफसरों की चुप्पी में दफन होता कानून
तहसीलदार, नायब तहसीलदार, राजस्व निरीक्षक और पटवारी जैसे अधिकारी, जिन पर इस अवैध धंधे पर लगाम कसने की जिम्मेदारी है, वे या तो आंखें मूंदे बैठे हैं या फिर ‘सौदे’ के चलते अनदेखी कर रहे हैं। नतीजा? कानून का राज खत्म, माफियाओं का अघोषित साम्राज्य कायम।
ठीक वैसे ही जैसे लॉकडाउन के दौरान अस्पतालों के बाहर तड़पती जनता को देखकर भी जिम्मेदार अफसरों ने अपनी आंखें फेर ली थीं, आज भी रेत माफिया के सामने प्रशासन घुटने टेकता नजर आ रहा है।

कोरोड़ों का नुकसान, पर्यावरण की तबाही

अवैध रेत खनन से जहां शासन को करोड़ों रुपयों का राजस्व नुकसान हो रहा है, वहीं नदी का प्राकृतिक संतुलन भी बिगड़ रहा है। पानी के स्रोत खत्म हो रहे हैं, जैवविविधता को भारी खतरा पैदा हो रहा है। लेकिन अफसोस, कार्रवाई के नाम पर सिर्फ फाइलों में खानापूर्ति हो रही है।

मजदूरों का सपना रेत में रौंदा जा रहा है

आज मध्यम वर्ग और मजदूर वर्ग के लिए अपना घर बनाना एक सपना बनकर रह गया है। जिस पैसे को पेट काटकर, खून-पसीना बहाकर जोड़ा था, उस पर माफिया दिनदहाड़े डाका डाल रहे हैं। सरकारी रेट से कहीं ज्यादा कीमतों पर रेत बिक रही है। रेत माफिया जनता की उम्मीदों को रौंद रहे हैं, और जिम्मेदार अधिकारी मौन साधे बैठे हैं।
“75 सालों का सबसे बड़ा सवाल”
चर्चा है कि पिछले 75 वर्षों में ऐसा दौर पहली बार आया है जब जनता प्रशासन की ‘हुकूमशाही‘ के सामने इस कदर बेबस महसूस कर रही है। ना आवाज उठाने का साहस, ना उम्मीद कि कोई न्याय मिलेगा।
“लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है”, ये बातें अब बस किताबों तक सीमित रह गई हैं। जमीनी हकीकत कुछ और ही है।

अब तो क्रांति का सवाल उठना ही चाहिए!

प्रशासन को जगाने के लिए कब आएगी वह क्रांति जिसकी बातें इतिहास में पढ़ाई जाती हैं?
कब गूंजेगी वह आवाज जो कहे — “अब बहुत हुआ!”
जनता पूछ रही है —
आखिर कब तक?
कब तक माफियाओं की सत्ता चलेगी और रक्षक सोते रहेंगे?
क्या हम इसी व्यवस्था के लिए आजाद हुए थे?